-:चार
मुक्तक:-
मैंने
हर
हार को
जीत
समझा
I
धूप
की
तपन
को
शीत
समझा
II
हार
से
क्यों
मायूस
होऊ,
हार
को
जीवन
का
गीत
समझा
II
बेदर्द जमाने का
बहुत
ख्याल
हुआ
I
यहाँ खुला मोहब्बत
का
बाज़ार
हुआ
II
क्यों जमा खर्च
में
लगे
रहते
है
लोग,
जीवन न हुआ
गणित
का
सवाल
हुआII
कांच
सा
मन
तोड़
गया
कोई
I
किरचों
को
यहाँ
छोड़
गया
कोई
II
आखिर
में
बहला
फुसला
कर
मुझे,
अनाम
रिश्तो
से
जोड़
गया
कोई II
जिन्दगी बेनाम रिश्ता
हो
गई
I
दर्द प़ी जग़
का
फ़रिश्ता
हो
गई II
मुस्कराकर दर्द को
धोखा
दिया,
पीर मन की
सु
कविता
हो
गईII
शेर:- कहानी
तुमने कैसी
की, कहां
से फिर
कहा ठहरी
I
शुरु
मेरा एक
आंसू था, अंत
की आह तेरी थी
II
वी.पी.सिंह
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