Thursday, December 8, 2011

-: महा पुरुषो की दुर्दशा : -

गाँधी जी की आत्म कथा,पड़ी मिली एक नाली में,
शास्त्री जी भी पड़े हुए थे एक टोकरी खली में,
भीम राव आंबेडकर देखे खड़े हुए एक बस्ती में,
किताब छीन कर गुंडे ले गये दारू पी रहे मस्ती में,
लाला जी को सब ने देखा, बिकते चार रुपया में,
नेहरु, इन्द्र,राजीव देखे,मैंने लाल किले के में,
लोगो ने पेशा कर लिया,इन्हें बेच के खाने में,
चन्द्रशेखर,भगतसिंह,शिवाजी फिरते गली मोहल्लों में,
चोर उचक्के बने फिरे, पिस्तोल दबाकर अंटी में,
नेता जी को मैंने देखा,फिरे गाँव की गलियो में,
थम्सअप छाप की मोहर लगी है बात करे अंग्रेजी में,
आगे बढकर मैंने देखा लक्ष्मी बाई को झाँसी में,
छोड़ कर घोडा वे बैठी थी नगर निगम की ट्रोली में,
मेवाड़ मुकुट प्रताप को देखा, बिन घोड़े के पानी में,
याद नहीं अब उनकी गाथा,खड़े बीच राजधानी में,
गीतांजलि का एक पृष्ठ जब, मिला मिर्च को लेने में,
हुआ संकोच मुझे इस पर भी, दस पैसे भी देने में,
खोली पुड़िया जब धनिया की,चकित हो गया भाई में,
मना रही संतोष जानकी, पंचवटी के रोने में,
राम-लखन, कृष्ण को देखा, झगड़ो के ठौर- ठिकानो में,
स्वार्थ में नेता इतने गिर गये,गोली चलवाये टोलियो में,
प्रेमचन्द के मैने देखा, टिक्की और पकोड़ो में,
तुलसी दास जी पड़े हुए थे, एक होटल के कोने में,
नानक जी थे मदद गार, मुन्ने की नाक पूछने में,
कालिदास को मेघदूत, सन्देश सुनाता दौने में,
नहीं लाभ है स्मारक और, स्टुचो बनवाने में,
नहीं रखा है वर्ष गांठ और,इनके टिकट चलाने मे ,
जब तक दिल से करेना,पूजा इंसानों के बाने में,
महा पुरुषो की दुर्दशा हुई, इस भारत के आने में,
वी.पी.सिंह कहें क्या रखा है,ढ़ोंग ढकोसले वाजी में,
व्यर्थ हो गया भय्या अब,यहाँ महा पुरुषो का मरने में II
v.p.singh
Mob.09971224023
16.7.1998

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