Monday, June 13, 2011

जीवन की चार बाते

मैंने हर हर को जीत समझा I
धूप की तपन को शीत समझा II
हार से क्यों मायूस होऊ,
हार को जीवन का गीत समझा II
बेदर्द जमाने का बहुत ख्याल हुआ I
यहाँ खुला मोहब्बत का बाज़ार हुआ II
क्यों जमा खर्च में लगे रहते है लोग,
जीवन न हुआ गणित का सवाल हुआII
कांच सा मन तोड़ गया कोई I
किरचों को यहाँ छोड़ गया कोई II
आखिर में बहला फुसला कर मुझे,
अनाम रिश्तो से जोड़ गया कोई II
जिन्दगी बेनाम रिश्ता हो गई I
दर्द प़ी जग़ का फ़रिश्ता हो गई II
मुस्कराकर दर्द को धोखा दिया,
पीर मन की सु कविता हो गईII

शेर:- कहानी तुमने कैसी की, कहां से फिर कहा ठहरी I
शुरु मेरा एक आंसू था, अंत की आह तेरी थी II

वी.पी.सिंह

No comments:

Post a Comment