Wednesday, November 13, 2013

रस्म-ए-उल्फत

-:रस्म-ए-उल्फत :-
रस्म-ए-उल्फत,खुशी से हम निभाते चले गए I
ईश्क के साज पर, वफा के गीत गाते चले गए I
न जाने कैसे ! हसरतों का एक तार टूट गया  I
उंगलियों को,बेफिक्र लहूलुहान बनाते चले गए I
ज़ख्मों की कैद मे,दिल किसी तरह धडक रहा है I
 हम इसमे,दर्द की फूंक, बेखौफ मारते चले गए I
गालिब ने कहा था,ईश्क,आतिश -ए-दरिया है I
 इस आग मे हम अपने को,जलाते चले गए I
ऐ मेरे हमनवां तुम दूर ही रहना,प्यार के इस खेल से I

मेरी सजा तुम हंस-हंस कर बढाते चले गए I
                
                                                   V.P.Singh

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