-:रस्म-ए-उल्फत :-
रस्म-ए-उल्फत,खुशी
से हम निभाते चले गए I
ईश्क
के साज पर, वफा के गीत गाते चले गए I
न जाने
कैसे ! हसरतों का एक तार टूट गया I
उंगलियों
को,बेफिक्र लहूलुहान बनाते चले गए I
ज़ख्मों
की कैद मे,दिल किसी तरह धडक रहा है I
हम इसमे,दर्द की फूंक, बेखौफ मारते चले गए I
गालिब
ने कहा था,ईश्क,आतिश -ए-दरिया है I
इस आग मे हम अपने को,जलाते चले गए I
ऐ मेरे
हमनवां तुम दूर ही रहना,प्यार के इस खेल से I
मेरी
सजा तुम हंस-हंस कर बढाते चले गए I
V.P.Singh
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